बापूजी ने ध्यान करना सिखाया
ध्यान क्या है ?
ध्यान तो लोग करते हैं परंतु अपनी मान्यता, अपनी समझ के अनुसार करते हैं, जिससे उन्हें ध्यान का पूरा लाभ नहीं मिल पाता । लेकिन पूज्य बापूजी जैसे योग के अनुभवी ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष का अनुभवसम्पन्न मार्गदर्शन जिनको मिल जाता है उनकी तो सहज में ही ध्यान की गहराइयों की यात्रा होने लगती है । ध्यान क्या है और वह कैसे करना चाहिए - इस संदर्भ में पूज्य बापूजी के श्रीवचनों में आता है : ‘‘सब काम करने से नहीं होते हैं । कुछ काम ऐसे भी हैं जो न करने से होते हैं । ध्यान ऐसा ही एक कार्य है । ध्यान का मतलब क्या ? ध्यान है डूबना । ध्यान है आत्मनिरीक्षण करना... हम कैसे हैं यह देखना । कहाँ तक पहुँचे हैं यह देखना । कितना अपने-आपको भूल पाये हैं, कितना विस्मृतियोग में डूब पाये हैं यह देखना ।
सत्संग भी उसीको फलता है जो ध्यान करता है । ध्यान में विवेक जागृत रहता है । ध्यान में बड़ी सजगता, सावधानी रहती है । ‘करने’ से प्रेम कम करें, ‘न करने’ की ओर प्रीति बढ़ायें । जितना भी आप करोगे उसके अंत में ‘न करना’ ही शेष रहेगा । ध्यान अर्थात् न करना... कुछ भी न करना । जहाँ कोशिश होती है, जहाँ करना होता है वहाँ थकावट भी होती है । जहाँ कोशिश होती है, थकावट होती है वहाँ आनंद नहीं होता । जहाँ कोशिश नहीं होती, आलस्य-प्रमाद भी नहीं होता अपितु निःसंकल्पता होती है, जो स्वयमेव होता है, वहाँ सिवाय आनंद के कुछ नहीं होता और वह आनंद निर्विषय होता है । वह आनंद संयोगजन्य नहीं होता, परतंत्र और पराधीन नहीं होता वरन् स्वतंत्र और स्वाधीन होता है । मिटनेवाला और अस्थायी नहीं होता, अमिट और स्थायी होता है । सब उसमें नहीं डूब पाते । कोई-कोई बड़भागी ही डूब पाते हैं और जो डूब पाते हैं वे आनंदस्वरूप को खोज भी लेते हैं ।
‘न करने की ओर प्रीति बढ़ायें...’ इसका मतलब यह नहीं कि आलसी हो जायें । जो निष्काम सेवा नहीं करता वह ध्यान भी नहीं कर सकता । पहले निष्काम सेवा के द्वारा अंतःकरण को शुद्ध करे । ज्यों-ज्यों अंतःकरण शुद्ध होता जायेगा, त्यों-त्यों ध्यान, जप में मन लगता जायेगा ।
लोग ध्यान करते हैं तो ध्यान में सुन्न (क्रियारहित) हो जाने से थोड़ी-बहुत थकान उतरती है, थोड़ा-बहुत फायदा हो जाता है लेकिन ध्यान में अंतःकरण को आत्मस्वरूप से तदाकार करना पड़ता है ।’’
(ध्यान के द्वारा अंतःकरण को तदाकार कैसे करना है, जानिये अगले अंक में ।)