ध्यान और जप हैं एक-दूसरे के परिपोषक
(‘जप के बाद क्या करें ?’ अंक 325 से आगे)
संतों एवं शास्त्रों ने ध्यानसहित भगवन्नाम-जप की महिमा गाकर संसार का बड़ा उपकार किया है क्योंकि सब लोग जप के साथ ध्यान नहीं करते । अतः ध्यान के बिना उन्हें विशेष लाभ भी नहीं होता । लोभी की भाँति भगवन्नाम अधिकाधिक जपना चाहिए और कामी की भाँति निरंतर स्वरूप का ध्यान करना चाहिए । संत तुलसीदासजी कहते हैं :
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ।।
(श्री रामचरित. उ.कां. : 130)
ध्यान और जप कैसे एक-दूसरे के परिपोषक हैं इसके बारे में पूज्य बापूजी के सत्संग में आता है : ‘‘जप अधिक करें कि ध्यान करें ? जप के बिना ध्यान नहीं होगा । ध्यान ठीक करे बिना जप नहीं होगा । इसलिए जप में ध्यान लगाओगे तभी जप ठीक होगा और जप ठीक होगा तो फिर धीरे-धीरे जप के अर्थ में मन लगेगा तो फिर वह शांत हो जायेगा, मन का ध्यान लगेगा । जप के अर्थ में मन लगेगा तो मन भगवदाकार बनेगा, भगवदाकार बनेगा तो सुख मिलेगा और जहाँ सुख है वहाँ मन लगता है ।’’