सद्विद्यायुक्त पुरुष के लक्षण जानकर उन्हें अपने में लाओ
(गतांक से आगे)
ब्रह्मवेत्ता समर्थ रामदासजी अपनी हितभरी अनुभव-वाणी से सबके कल्याण के निमित्त सद्विद्यायुक्त पुरुष के लक्षण बताते हुए आगे कहते हैं : सद्विद्यायुक्त पुरुष तत्त्वज्ञ होते हुए भी उदासीन (विरक्त), बहुश्रुत (अनेक विषयों का ज्ञान सुनने व उसका स्मरण रखनेवाले) हो के भी सज्जन, बड़े-बड़े राजाओं के मार्गदर्शक - मंत्री होते हुए भी सद्गुण-सम्पन्न एवं नीतिवान होते हैं ।
वे पवित्र, पुण्यवान साधु हो के शुद्ध अंतःकरणवाले, कृपालु व धर्मात्मा होते हैं । वे स्वधर्मपालक, कर्मनिष्ठ, निर्मल, निर्लोभी एवं अनुतापी (ईश्वर के लिए विरहाग्नि द्वारा निर्मल हुए चित्तवाले) होते हैं ।
उनकी परमार्थ में प्रीति व रुचि होती है तथा परमार्थ उन्हें मधुर लगता है । वे सन्मार्ग का आचरण व सत्कर्म करनेवाले, उत्तम धारणाशक्तियुक्त एवं धैर्यवान होते हैं । वे श्रुति एवं स्मृति के ज्ञाता होते हैं । आनंद से जीवन जीने की युक्ति को जानते हैं । उन्हें भगवान की लीलाओं में प्रीति होती है तथा भगवान की स्तुति कैसे करनी चाहिए इसे भी वे जानते हैं । वे बुद्धिमान एवं व्यक्ति, वस्तु आदि की उत्तम परख करनेवाले होते हैं ।
वे सदैव दक्ष रहकर प्रसंगोचित आचरण करनेवाले, चतुर, योग्य (श्रुति-शास्त्रसम्मत) तर्क करनेवाले, सत्य एवं सत्साहित्य में रुचि रखनेवाले, नियमनिष्ठ, पारदर्शी (भीतर का जाननेवाले), कुशल, चपल (स्फूर्तिवान) एवं अनेक प्रकार के अद्भुत, विस्मयकारी उत्तम गुणों से सम्पन्न होते हैं । किसका कितना आदर करें, किसका कैसे सम्मान करें इसका तारतम्य वे जानते हैं । कौन-से समय किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए इसे वे अच्छी तरह से जानते हैं । वे बोलने में कुशल तथा कार्य-कारण संबंध के उत्तम जानकार होते हैं ।
वे सदैव सावधान एवं कार्यरत रहकर साधकवृत्ति से रहते हैं । वेदादि शास्त्रों का अनुशीलन (गम्भीरतापूर्वक सतत अभ्यास या नियमित गहन अध्ययन) करने के कारण शब्दज्ञान व आत्मानुभव - दोनों होने से दूसरों को ज्ञान-विज्ञान का निश्चयात्मक बोध कराने में समर्थ होते हैं । वे तीर्थक्षेत्रों में निवास एवं नाना मंत्रों के अनुष्ठान करनेवाले, दृढ़व्रती, लोक-मांगल्य के कार्य में रत रहकर उसके लिए अपने शरीर के कष्टों की परवाह न करनेवाले एवं इन्द्रियनिग्रह करके उपासना करनेवाले होते हैं ।
वे सत्य, शुभ एवं मधुर वचन बोलनेवाले, अपने वचनों के प्रति एकनिष्ठ रहकर उनका पालन करनेवाले होते हैं । वे सदा निश्चयात्मक एवं दूसरों के लिए सुखकारी वचन बोलते हैं (कभी-कभी उनके वचन बाहर से एवं तत्काल सुखकारी तथा मधुर न भी लगें तो भी परिणाम में सुखकारी, मधुर व हितकारी ही सिद्ध होते हैं ऐसा विवेकीजन जानते हैं) । उनकी सब इच्छाएँ तृप्त हो गयी होती हैं एवं योग की गहराइयों का ज्ञान उन्हें होता है । उनका व्यक्तित्व भव्य व प्रसन्नचित्त होता है । वे वीतराग (जिनके राग-द्वेष बाधित अर्थात् मिथ्या हो चुके हों ऐसे) हो के भी सौम्य एवं सात्त्विक होते हैं । वे निष्कपट एवं निर्व्यसनी होकर सदा शुद्ध मार्ग का अनुसरण करते हैं ।
(क्रमशः)