अपने स्वरूप को निर्विकल्प-निर्विकार जानें


(‘पराशर-मैत्रेय संवाद’ अंक 321 से आगे)

महर्षि पराशरजी मैत्रेय को उपदेश देते हुए आगे कहते हैं : ‘‘हे मैत्रेय ! मधुरता, शीतलता, द्रवता रूप जल अपने में अन्यरूप से कल्पित तरंगों को जानता ही नहीं तो अस्ति (अस्तित्व), भाति (चेतन, ज्ञान), प्रिय (आनंद) रूप तुझ आत्मा से अन्यरूप कल्पनास्वरूप जगत को तू कैसे जानता है ?’’

मैत्रेय ने कहा : ‘‘ठीक है, दृष्टांत के विषय वे जल आदि अधिष्ठान जड़ पदार्थ हैं इसी कारण अपने में अध्यस्त तरंग आदि को नहीं जानते परंतु मैं चैतन्य हूँ इसलिए अपने विवर्त स्वप्न के पदार्थों को जानता हूँ । स्वप्न-पदार्थों के अधिष्ठान चैतन्य स्वप्नद्रष्टा से ही कल्पित स्वप्न-पदार्थों की सिद्धि होती है, अन्य से नहीं । जो मैं स्वप्नद्रष्टा स्वप्न-पदार्थों को न प्रकाशूँ तो स्वप्न-पदार्थों का ज्ञान ही नहीं होना चाहिए, कारण कि अविद्या में या अंतःकरण में चैतन्य के आभास से भी स्वप्न-कल्पित पदार्थों का प्रकाश नहीं होता । अविद्या या बुद्धि (अंतःकरण) की नाईं यह आभास भी जड़ व कल्पित होने से कल्पित का प्रकाशक नहीं होता और अन्य कोई स्वप्न का प्रकाशक है नहीं, इससे शेष मुझ चैतन्य स्वप्नद्रष्टा से ही स्वप्न के अहंकार आदि पदार्थ सिद्ध होते हैं । वैसे ही सुषुप्ति अवस्था में अज्ञान तथा समाधि अवस्था में समाधि-सुख मुझ चैतन्य से ही सिद्ध होते हैं । यद्यपि सुषुप्ति व समाधि अवस्थाओं में कहने, चिंतन करने के साधन वाणी, मन आदि की अपने उपादान कारण अज्ञान में लीनता होने से इन अवस्थाओं में जाग्रत की तरह कहना, सुनना, चिंतन करना तथा अपने को द्रष्टा-साक्षी, प्रकाशक, निर्विकार, निर्विकल्प, सत्-चित्-आनंदस्वरूप, ज्ञानी-अज्ञानी इत्यादि विशेषणों से संयुक्त मानना और दृश्य को असत्-जड़-दुःखरूप, कल्पित मानना सम्भव नहीं है अथवा ऐसा सम्भव होते देखने में नहीं आता है तथापि सुषुप्ति में अज्ञान के अनुभव और आवृत (आच्छादित) सुख का तथा समाधि में निरावरण (आवरणरहित) सुख के अनुभव का बाध नहीं होता वरन् अनुभवपूर्वक ही स्मृति होती है । यदि कल्पित पदार्थों का ज्ञाता, प्रकाशक चैतन्य को नहीं मानेंगे तो स्वप्न-पदार्थों के न्यून-अधिकता के वृत्तांत का ज्ञान, सुषुप्ति के अज्ञान का ज्ञान, समाधि के सुख का ज्ञान आदि सर्व के अनुभव-सिद्ध कथन का विरोध होगा । इससे मुझ निर्विकार चैतन्य से ही कल्पित अहंकार आदि के भाव-अभाव की सिद्धि होती है, अन्य से नहीं ।’’

महर्षि पराशर : ‘‘हे मैत्रेय ! अवाङ्मनसगोचर (मन और वाणी की पहुँच से दूर) जो तुम्हारा, हमारा तथा समस्त कल्पित जगत का स्वरूप है उसका उपाधि* बिना प्रकाश्य-प्रकाशक भाव नहीं बन सकता क्योंकि सुषुप्ति में यद्यपि अंतःकरण जाग्रत की नाईं नहीं भी है तथापि अज्ञान में संस्काररूप से स्थित है और उस काल में अज्ञान ही उपाधि है । वैसे ही विद्वान पुरुष को समाधि अवस्था में भी अंतःकरण यद्यपि जाग्रत की नाईं स्पष्ट नहीं भी है तथा स्वरूप-अज्ञात अवस्था की नाईं अज्ञान भी नहीं है तथापि प्रारब्धक्षय-पर्यंत, ज्ञानाग्नि के कारण मिथ्या निश्चय होने से जल चुका अज्ञान उस समाधिकाल में भी है । वही उस काल में उपाधि है, उसीको लेश-अविद्या भी बोलते हैं । जैसे बाणों से दग्ध अर्जुन का रथ कृष्णरूपी प्रतिबंधक से पूर्व के समान ही सर्व को प्रतीत होता रहा, वैसे ही ज्ञानाग्नि से दग्ध कार्य-कारण समूह भी प्रारब्धरूपी प्रतिबंधक के विद्यमान होने से ही प्रतीत होता है । यह कार्य-कारण समूह की प्रतीति ही उपाधि है ।

हे मैत्रेय ! प्रारब्धरूपी उपाधि के क्षय होने पर अर्थात् उपाधि-निर्मुक्त विदेह कैवल्य (विदेह मुक्ति) में पूर्वोक्त व्यवहार नहीं है । हे मैत्रेय ! उस अवस्था का कोई दृष्टांत है नहीं, कारण कि समाधि, सुषुप्ति में भी उपाधि होती है ऐसा पूर्व में कह चुके हैं । इससे हे मैत्रेय ! तू श्रवण करता हुआ, स्पर्श करता हुआ, देखता हुआ, रस लेता हुआ, सूँघता हुआ वास्तव में अपने को निर्विकार, निर्विकल्प जान ।

हे मैत्रेय ! कल्पित उपाधि को अंगीकार करके उपाधिसंयुक्त विशेष अग्नि ही लकड़ियों आदि का दाहक, उष्ण, प्रकाश आदि व्यवहार करती है । उपाधिरहित समान अग्नि दाहक, उष्ण, प्रकाश आदि व्यवहार नहीं करती है इसलिए कल्पित अहंकार आदि के भाव-अभाव को अनुभव करना भी उपाधि से ही है, उपाधि बिना नहीं है ।

जैसे उपाधिसहित और उपाधिरहित अग्नि में भेद नहीं, व्यवहारों में भेद है । जैसे वायु चलने-ठहरने में आप एक सरीखी है पर चलने में भासती है और अचल अवस्था में नहीं भासती । जैसे आकाश घड़ा आदि उपाधिसहित में भी और घड़ा आदि उपाधिरहित में भी अपने को एकरस जानता है, वैसे ही हे मैत्रेय ! तू अपने निजात्मस्वरूप को माया, अहंकार आदि कल्पित उपाधिसहित में भी और माया, अंतःकरण आदि कल्पित उपाधिरहित में भी निर्विकल्प, निर्विकार जान ।’’ (यही संतजनों का निश्चय है ।)
(‘आध्यात्मिक विष्णु पुराण’ से क्रमशः)
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* उपाधि माने वह आरोपित वस्तु जो मूल वस्तु को छुपाकर उसको और की और या किसी विशेष रूप में दिखा दे । जैसे - आकाश असीम और निराकार है परंतु घट और मठ की उपाधियों से सीमित और भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होता है ।