कर्तर्व्यनिष्ठ व निर्भय बनने के चार महान सोपान
(गतांक का शेष)

कर्तव्यनिष्ठ व निर्भय बनने के शेष दो सोपान हैं :
(3) मान-अपमान या स्तुति-निंदा की उपेक्षा करना : कर्तर्व्य-कर्म करने में बहुत-से लोग मान-सम्मान करते हैं, प्रशंसा करते हैं तो बहुत-से लोग निंदा और तिरस्कार भी करते हैं । मान-अपमान और निंदा-स्तुति - ये सभी कर्तर्व्य-कर्म से डिगानेवाले होते हैं । अतएव कर्तर्व्यनिष्ठ व्यक्ति को शास्त्र-सम्मत कार्य करते रहना चाहिए और स्तुति-निंदा की ओर से आँखें मूँद लेनी चाहिए ।

अभिमानं सुरापानं गौरवं रौरवस्तथा ।
प्रतिष्ठा शूकरी विष्ठा त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत् ।।
‘अभिमान मदिरापान के समान, गौरव रौरव नरक के समान एवं प्रतिष्ठा सूअर की विष्ठा के समान है । अतः तीनों को त्यागकर सुखी हो जायें ।’ ये सभी विषतुल्य हैं और कर्तर्व्यपालन में बाधा उत्पन्न करते हैं इसलिए इनकी हमेशा उपेक्षा ही करनी चाहिए ।

(4) अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनों में प्रसन्न रहना : कर्तव्यपालन में अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती ही हैं । अनुकूल परिस्थिति से कर्तर्व्यशील व्यक्ति न तो हर्षित होता है और न प्रतिकूल परिस्थिति के कारण हताश और चिंतित ही होता है । परिस्थितियाँ तो समयानुसार परिवर्तित होती रहती हैं किंतु प्रत्येक परिस्थिति में कर्तर्व्य-कर्म की धारा सदा एक समान चलती रहनी चाहिए । प्रतिकूल परिस्थितियों से विवश होकर कर्तर्व्य-कर्म का त्याग करना कदापि उचित नहीं है । कर्तर्व्यनिष्ठ व्यक्ति तो प्रतिकूल परिस्थितियों को भी कर्तर्व्य-साधन में अनुकूल बना लेते हैं । यह केवल मन की प्रसन्नता से ही सम्भव है । सदा प्रसन्न रहना, हर परिस्थिति को हँसते-मुस्कराते सहना कर्तर्व्यनिष्ठा की कसौटी है । संसार में जो भी महापुरुष हुए हैं, वे सभी जहाँ चरित्रवान और निष्ठावान रहे हैं वहीं प्रसन्नचित्त और हँसमुख भी रहे हैं । इसलिए कहा गया है, ‘सब रोगों की एक दवाई, हँसना सीखो मेरे भाई ।’

अतएव प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हो, अपने पद के अनुकूल (धर्म-विहित) कर्म करते हुए उसे चरित्रवान बनना चाहिए । अपने कर्म में निंदा-स्तुति की चिंता किये बिना प्रसन्नचित्त होकर प्रभु-स्मरण के साथ निर्भयतापूर्वक दत्त-चित्त हो के कर्म में लगे रहना चाहिए । यही कर्म की या कर्तर्व्यनिष्ठा की मर्यादा है । अपने कर्तर्व्य-कर्म का तत्परतापूर्वक प्रसन्नता के साथ पालन करना उच्च कोटि की साधना है । अपनी पूरी क्षमता, मेधा (उत्तम बुद्धि) एवं योग्यता के साथ सिद्धि-असिद्धि (सफलता-असफलता) की चिंता किये बिना कर्तर्व्यपालन में संलग्न रहना ही धर्म है । अतएव मानव के लिए जो नियत कर्म हैं, स्वाभाविक कर्म हैं उन सारे शास्त्र-विहित कर्मों को सम्पादित करते रहना चाहिए ।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं :
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
‘अपने-अपने कर्म में अच्छी तरह लगा हुआ पुरुष संसिद्धि (सम्यक् ज्ञान, आत्मज्ञान) प्राप्त कर लेता है ।’
(गीता : 18.45)