सुख से विचर
यह विश्व तुझसे व्याप्त है, तू विश्व में भरपूर है ।
तू वार है तू पार है1, तू पास है तू दूर है ।।
उत्तर तू ही दक्षिण तू ही, तू है इधर तू है उधर ।
दे त्याग मन की क्षुद्रता, निःशंक हो सुख से विचर ।।
निरपेक्ष द्रष्टा सर्व का, इस दृश्य से तू अन्य है ।
अक्षुब्ध है चिन्मात्र है, सुख-सिंधु पूर्ण अनन्य है ।।
छः ऊर्मियों2 से है रहित, मरता नहीं तू है अमर ।
ऐसी किया कर भावना, निर्भय सदा सुख से विचर ।।
आकार मिथ्या जान सब, आकार बिन तू है अचल ।
जीवन मरण है कल्पना, तू एकरस निर्मल अटल ।।
ज्यों जेवरी3 में सर्प त्यों, अध्यस्त तुझमें चर अचर ।
ऐसी किया कर भावना, निश्चिंत हो सुख से विचर ।।
दर्पण धरे जब सामने, तब ग्राम उसमें भासता ।
दर्पण हटा लेते जभी, तब ग्राम होता लापता ।।
ज्यों ग्राम दर्पण माँहिं तुझमें, विश्व त्यों आता नजर ।
संसार को मत देख, निज को देख तू सुख से विचर ।।
(सत्साहित्य सेवा केन्द्रों पर उपलब्ध ‘श्री ब्रह्मरामायण’ से)
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1. इस पार और उस पार के दोनों किनारे तू ही है । 2. छः प्रकार के ताप - भूख, प्यास, जरा, मृत्यु, शोक तथा मोह । एक अन्य मत से सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, लोभ तथा मोह । 3. रस्सी