इस विधि दर्शन से वंचित हो कब तक दिवस बिताऊँगी...

मैं बिरहिन अब प्रियतम तुमको*,
किस विधि से कब पाऊँगी ।
लगी बिरह की आग हृदय में,
कैसे इसे बुझाऊँगी ।।
मेरा तो जीवन सूना-सा,
यह सब वैभव धन सूना-सा ।
यही नहीं मुझको तो तुम बिन,
लगता स्वर्ग सदन सूना-सा ।
इस विधि दर्शन से वंचित हो,
कब तक दिवस बिताऊँगी ।। मैं बिरहिन... 
मेरी पीड़ा किसने जानी,
सब ठुकराते हैं मनमानी ।
कोई एक न सुनते मेरी,
कहते तू पागल दीवानी ।
इस निर्दयी निठुर दुनिया से, 
कैसे प्रान बचाऊँगी ।। मैं बिरहिन...
मैं निर्धन कितनी हूँ स्वामिन्,
निर्बल भी इतनी हूँ स्वामिन् ।
पर अब शरण तुम्हारी ही हूँ,
जो कुछ हूँ जितनी हूँ स्वामिन् ।
नाथ तुम्हींसे दुःख-सुख अपना,
सब रोऊँगी गाऊँगी ।। मैं बिरहिन...
ठुकरा दो या प्यार करो तुम,
वार करो या पार करो तुम ।
चरणसेविका बनी तुम्हारी,
तज दो या स्वीकार करो तुम ।
अब तो सभी भाँति से तुमको,
हे जीवन-धन ध्याऊँगी ।।
मैं बिरहिन अब प्रियतम तुमको, 
किस विधि से कब पाऊँगी ।।...
         - संत पथिकजी 

(क्रमशः)
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