उनका योगक्षेम सर्वेश्वर स्वयं वहन करते हैं
- पूज्य बापूजी
(अंक 326 से आगे)
ईश्वर की लीला अचिंत्य है, उसका कोई छोर, कोई पारावार नहीं है । संत उड़िया बाबा, जिनको आनंदमयी माँ बड़े आदर से नमन करती थीं, वे एक बार आषाढ़ महीने में प्रभु की मस्ती में गंगा-तट पर चलते जा रहे थे... चलते जा रहे थे... । उन्हें जोरों की भूख लगी । दूर-दूर तक कोई गाँव दिखाई नहीं दिया । प्यास तो गंगाजल से मिट जाती लेकिन भूख का क्या ? किसी पेड़ के नीचे बाबा आसन लगा के बैठ गये । रात्रि हो रही है... कोमल वाणी, मधुर चितवन, प्रेमभरी दृष्टि और आनंद देने की अनूठी रीतवाले दो सुकुमार खेलते हुए आये । बोले : ‘‘बाबा-बाबा ! इधर बैठे हो, भोजन करोगे ?’’
भूखे बाबा क्या ‘न’ बोलें ?
बोले : ‘‘हाँ बेटा ! भूख तो लगी है ।’’
‘‘बाबा ! हम अभी लाते हैं खाना ।’’
थोड़ी देर में बच्चे रोटी और केले की सब्जी लाये ।
बाबा की आदत थी, ब्राह्मण के हाथ का ही खाना ।
बालकों से पूछा : ‘‘तुम किस जाति के हो ?’’
उन दो प्यारे प्रसन्न बालकों ने कहा : ‘‘बाबा ! हम माहेश्वरी बनिया हैं ।’’
उन बच्चों का प्यार, सहजता और प्रभाव देखकर बाबा बोले : ‘‘हाँ, लाओ-लाओ, खायेंगे ।’’
बालकों ने भोजन दिया ।
बाबा ने पूछा : ‘‘इधर कुछ दिखाई तो देता नहीं है, यह तुम कहाँ से ले आये ?’’
बोले : ‘‘हम उस गाँव से आये हैं । इधर खेलने आये । तुम भूखे थे तो ले आये, खा लो ।’’
बाबा ने रोटी खा ली । बड़ी तृप्ति हुई ।
भक्ति भगवान के लिए ही करें
बाबरिया भूत चला जायेगा यह कथा सुनने से । ‘मेरा करूँ, मैं करूँ, मेरे भविष्य के लिए करूँ...’ - यह सब करने का जो भूत है वह बाबरिया भूत है । फिर बबूल के पेड़ पर चढ़ो और उतरो, बस काँटे सहो ।
करना नहीं है, जानना है ! प्रभु को जानने में लगें, नहीं तो बाबरिया भूत नहीं छोड़ेगा । ‘अपना कुछ होना चाहिए, अपने नाम जमीन होनी चाहिए, अपना नाम होना चाहिए...’ नाम तो हाड़-मांस के शरीर का रखा है, बोलते हैं : ‘मैं करूँ ।’
मैं अरु मोर तोर तैं माया ।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ।।
शरीर को ‘मैं’ माना, नाम को सच्चा माना, ‘यह मेरा, यह तेरा...’ - यह माया आ गयी । जीवों की काया उसके वश हो गयी है । यह दिखनेवाला शरीर स्थूल काया है... स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर - तीनों कायाएँ उसके वश हो जाती हैं । मरने के बाद भी सूक्ष्म शरीर से भटकना पड़ता है । यह बाबरिया भूत भटकाता है ।
भगवान की भक्ति भी करते हैं लेकिन संसार की चीजें पाने के लिए करते हैं तो समझो अभी कई जन्म लेना बाकी है । भगवान की भक्ति भगवान को पाने के लिए ही करते हैं तो समझो यह जन्म सार्थक हो रहा है ।
बिना बुलाये प्रभु पुनः आये
आत्मसुख से तृप्त रहनेवाले उड़िया बाबा ने थोड़ा ब्रह्मचिंतन कर आकाशरूप ईश्वरत्व की तरफ निहारते हुए विश्राम किया । प्रभात हुआ, दोनों बालक अँधेरे में ही फिर आ गये ।
बोले : ‘‘बाबा ! कुछ पियोगे ?’’
‘‘ओ हो ! बेटा, इतनी जल्दी आ गये !’’
‘‘हाँ बाबा !’’
बोले : ‘‘हाँ, पियेंगे कुछ ।’’
वे मिट्टी की हँड़िया में लस्सी ले आये । बाबा ने लस्सी पी ली ।
बाबा बोले : ‘‘बेटे ! इतने अँधेरे में कैसे आये ?’’
बोले : ‘‘खेलते-खेलते हम आ गये । अच्छा बाबा ! आपने लस्सी पी ली, हम जाते हैं ।’’
बाबा देखते रहे, बच्चे चले गये ।
बाबा ने खड़े हो के देखा, फिर चलते गये... चलते रहे... कोई गाँव दिखा नहीं । ‘बच्चे आये कहाँ से, गये कहाँ ?’ बाद में बाबा को महसूस हुआ कि वे बालक के रूप में श्याम-बलराम थे ।
कैसा है भगवद्-ज्ञान, भगवद्-प्रसाद, भगवद्-माधुर्य ! बच्चों का रूप लेकर भगवान कैसे प्रकट हो जाते हैं ! एक तरफ तो वह सृष्टि का सर्जनहार है, पालक है, पोषक है, संहारक है और दूसरी तरफ बाबा का बेटा होने में उसे मजा आ रहा है ।
ऐसे एक संत मुझे गंगोत्री से ऊपर गोमुख के शांत सन्नाटे में मिले थे । बातचीत की और मैं मुड़ गया फिर विचार आया कि ‘ये आये कहाँ से, गये कहाँ ?’ चट्टानों पर चढ़ के दूर-दूर तक देखा, कहीं दिखे नहीं । गोमुख के शांत सन्नाटे में तो चिड़िया भी नहीं फटक सकती थी तो संत कहाँ छुपेंगे ! लेकिन ईश्वर की लीला अपरम्पार है ।
उड़िया बाबा मस्ती-मस्ती में गुनगुनाते चले :
जिन खान-पान नहीं भावै है,
नहिं कोमल वसन1 सुहावै है ।
सब विषयभोग नित खारा है,
हरि-आशिक का मग न्यारा है ।।
‘मग’ माने मार्ग ।
तिन सबसे नाता तोड़ा है,
विष विषयों से मन मोड़ा है ।
विषय-विकार दिखते तो अमृत हैं लेकिन ये जहर हैं । जितना भी संसार का मजा है, जीव को फँसानेवाला है, ‘सजा’ है और आत्मा का मजा जीवात्मा को परमात्ममय बनानेवाला है ।
इक अपना प्रिय उर धारा है...
अपने परमेश्वर को, अपने आनंदस्वरूप ईश्वर को हृदय में धारा (धारण किया) है ।
हरि-आशिक का मग न्यारा है ।।...
जग जो जो वस्तु देखे है,
सब सत्य न करके पेखे2 हैं ।
तिन जगसों किया किनारा है,
हरि-आशिक का मग न्यारा है ।।
बाबा गुनगुनाते जा रहे हैं, मानो अपने अंतर्यामी को, अपने प्यारे को, प्रिय को सुनाये जा रहे हैं ।
जैसा तनु3 चले चलाते हैं,
जब हरि देवे तब खाते हैं ।
तिनके संग फिरता प्यारा है,
हरि-आशिक का मग न्यारा है ।।
जो प्रेम पियाला पीते हैं,
प्रिय सहित सभी जग जीते हैं ।...
प्रभु का प्रेम-प्याला जिन्होंने पिया है, उन्होंने हरिसहित जगत को जीता है ।
कुछ करना नहीं विचारा है,
हरि-आशिक का मग न्यारा है ।।
इस प्रकार बाबा गुनगुनाते जा रहे हैं ।
बाबा से पूछा : ‘‘बाबा ! वहाँ भोजन कौन लाये थे ?’’
बोले : ‘‘उसकी लीला है ।
जैसा तनु चले चलाते हैं,
जब हरि देवे तब खाते हैं ।...’’
कैसी सुंदर व्यवस्था है उस सुंदर की ! कोई खाने-पीने की चीज नहीं, कोई घरबार-मकान नहीं है, चलो बैठ गये उसके चिंतन में... ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।... ॐ आनंद ॐ... तू-ही-तू... ।’ तो ‘तू-ही-तू’ को बालक होने में देर क्या लगे ! खिलाड़ी (भगवान) बच्चे हो के आये ।
...कोई साथ चला नहीं
भगवन्नाम-जप से वाणी शुद्ध होती है । भगवान के चिंतन, ध्यान से अंतःकरण शुद्ध होता है । नहीं तो बाबरिया भूत अंतःकरण में बैठ जाता है : ‘मैं अपना कुछ करूँ... मैं यह प्लॉट लूँ और ऑफिस खोलूँ... मैं ये दोस्त बनाऊँ, पत्नी लाऊँ, पति लाऊँ... इसको रिझाऊँ, उसको रिझाऊँ, उनसे निभाऊँ...’ निभा-निभा के मर गये, कोई साथ चला नहीं लेकिन जिन्होंने प्रभु से निभा लिया उनका तो साथ पाकर लोग पावन हो जाते हैं । (क्रमशः)
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1. वस्त्र 2. देखे 3. तन