सत्संग की ऐसी समझ से होता निश्चिंत व निर्दुःख जीवन
- पूज्य बापूजी
ठाकुर मेघसिंह बड़े जागीरदार थे । साथ ही वे बड़े सत्संगी भी थे । सत्संग के प्रभाव से वे जानते थे कि ‘जो कुछ होता है, मंगलमय विधान से होता है, हमारे विकास के लिए होता है ।’ वे कोई वायदा करते तो जल्दबाजी में नहीं करते, विचार करके ‘हाँ’ बोलते और बोली हुई ‘हाँ’ को निभाते । अथवा तो कभी ऐसा अवसर आता तो बोलते : ‘अच्छा, जो ईश्वर की मर्जी होगी, प्रयत्न करेंगे...’ ताकि झूठ न बोलना पड़े और अपना वचन झूठा न पड़े । मंगलमय विधान में विश्वास होने के कारण कोई भी परिस्थिति उन्हें डाँवाँडोल नहीं कर सकती थी ।
मेघसिंह का एक सेवक था भैरूँदान चारण । सेवा बड़ी तत्परता से करता था और स्वामी का विश्वास भी पा लिया था लेकिन कुसंग के कारण उसके मन में जागीरदार के प्रति द्वेष पैदा हो गया था । एक रात्रि को मेघसिंह रनिवास(1) की तरफ जा रहे थे । स्वामी पर पीछे से वार करने के लिए भैरूँदान ने खंजर निकाला । एकाएक पीछे देखा तो सेवक के हाथ में खंजर ! सामने नजर डाली तो साँड़ भागा आ रहा है । आगे-पीछे का सोचे इतनी देर में तो साँड़ ने जोरों से भैरूँदान की छाती में सींग घोंप दिया । वह धड़ाक्-से गिरा और हाथ ऐसा घूमा कि खंजर से उसीकी नाक कट गयी ।
करमी(2) आपो आपणी के नेड़ै(3) के दूरि ।।
यह मंगलमय विधान है । साँड़ का प्रेरक कौन है ? स्वामी आगे हैं, स्वामी को साँड़ छूता नहीं है और सेवक के अंदर गद्दारी है तो सेवक को वह छोड़ता नहीं है, कैसी मंगलमय व्यवस्था है ! अगर स्वामी का आयुष्य इसी ढंग से पूरा होनेवाला होता तो ऐसा भी हो सकता था ।
मेघसिंह ने सेवकों को बुलाया, स्वयं भी लगे और भैरूँदान को उठाकर अपने महल में ले गये । पत्नी ने देखा, चीखी । बोली : ‘‘आपके सेवक के हाथ में इतना जोरों से पकड़ा हुआ खंजर ! मालूम होता है कि इसने आपकी हत्या करने की नीच वृत्ति ठानी और भगवान ने आपको बचाया ।’’
बोले : ‘‘तू ऐसा क्यों सोचती है ? हम उस पर संदेह क्यों करें ?’’
लेकिन अनुमान और वार्तालाप से पत्नी को तो सब बात समझ में आ गयी थी और पति पहले ही समझे थे । सेवक की सेवा-चाकरी करा के स्वस्थ किया, उसे होश आया पर आँख नहीं खुली थी । तब पति-पत्नी आपस में जो बात कर रहे थे वह चारण ने सुनी । वह सोचने लगा, ‘स्वामी ने मेरे को देखा भी था और पत्नी को भी समझा रहे हैं कि ऐसा तो मैंने भी देखा था लेकिन हो सकता है कि मेरी रक्षा के लिए इसने कटार पकड़ी हो । तुम कभी भी इस पर संदेह नहीं करना । भैरूँदान मेरा ईमानदार, वफादार सेवक है । वह मुझे खंजर मारे यह सम्भव नहीं । अगर मारे तब भी ऐसा कोई विधान होगा ।’
इन उदार तथा ईश्वर के विधान में आस्था रखनेवाले वचनों से भैरूँदान का मन बदल गया । वह फूट-फूटकर रोया कि ‘‘मुझ अभागे ने आपको नहीं पहचाना । मैं आपका यश देखकर जलता था । मैंने सचमुच में आपकी हत्या करने के लिए खंजर पकड़ा था लेकिन मेरे को मेरी करनी का फल मिला । अब मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ और साथ ही दंड भी चाहता हूँ । नहीं तो मेरा आत्मा मुझे कोसेगा ।’’
मेघसिंह बोले : ‘‘चारण ! तुझे दंड दूँ ? बिना दंड के नहीं मानोगे तो मैं 3 प्रकार के दंड देता हूँ - (1) आज से शरीर से किसीका बुरा नहीं करना । (2) मन से किसीका बुरा न सोचना, बुरा न मानना, किसीके प्रति दुर्भाव न रखना और (3) वाणी से कभी कठोर तथा निंदनीय शब्दों का उच्चारण न करना । ये त्रिदंड साधेगा तो तू जन्म-कर्म की दिव्यता को जान लेगा ।’’
ऐसी उदार वाणी सुनकर भैरूँदान तो चरणों में गिर पड़ा । मेघसिंह ने स्नेह से उसे उठाया, प्रोत्साहित किया ।
ऐसे पुरुषों के जीवन में केवल एक बार ही ऐसी कोई घटना आकर चुप हो जाय ऐसी बात नहीं है, सभीके जीवन की तरह सभी प्रकार की घटनाएँ ऐसे पुरुषों के जीवन में घटती रहती हैं । (क्रमशः)
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1. रानियों के रहने का स्थान या महल 2. कर्म, करनी 3. निकट